Sunday, 24 March 2024

छंद सार (मुक्तक)

 

अलग-अलग ये भेद मंत्रणा, सच्चे कुछ उन्मादी।
राय जरूरी देने अपनी, जुटे हुए हैं खादी।
किसे चुने जन-मत आक्रोशित, दिखा रहे अंगूठा,
दर्द सभी का अपना होगा, सुधी बने प्रतिवादी।

कहें सयाने लोग अजूबे, अपनी विगत कहानी।
बीती बातें सीख पुरानी, लगती हुई रवानी।
मंत्र मुग्ध जो सुनता आया, सधे न सच्चा झूठा,
प्राणवान हो संस्कृति अपनी, नहीं चले मनमानी।

एक रंग में अभ्र गगन पर, कहते काले भूरे।
देगा पानी ये गुणधानी, नयन पारखी घूरे।
प्रकृति आपदा झेलें हम सब, परिवर्तन बलशाली,
सही मशवरे की अनदेखी, गिरते सुखद कँगूरे।
*** डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी

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