Sunday 25 February 2024

मुक्तक

 

ममता की सागर है माता, पिता समन्दर धीरज के।
संतति पुष्प खिले हैं सुन्दर, हृद-पुष्कर में नीरज के।
लहरें उठती हैं ममता की, माँ के हृदय समंदर में-
मकरंद सुगंध लुटाते हैं, पावन निर्मल क्षीरज के॥1॥

इन्द्रनील मणि-सा समुद्र यह, कहलाता रत्नाकर है।
रत्नों की है खान नीरनिधि, मुक्ता-मणि का आकर है।
भू-मंडल में विस्तृत अतुलित, पारावार विपुल जल का-
वारिद की प्यास बुझाता है, यह वारिधि करुणाकर है॥2॥

पौराणिक है कथा पुरानी, क्षीरोदधि के मंथन की।
मंदर पर्वत वासुकी नाग, दोनों के गठबंधन की।
चौदह रत्नों में पहला था, कालकूट...अमरित अंतिम-
पान किया देवों ने उनका, जय हरि-हर शुभ-चंदन की॥3॥

कुन्तल श्रीवास्तव.
डोंबिवली, महाराष्ट्र.

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