ओ, चतुर्दिक फैले हुए,
समस्त पर आच्छादित,
अनन्त तक अपनी बाँहें पसारे व्योम!
कितना विलक्षण चरित्र है तुम्हारा!
निराकार होकर भी दृश्य हो
बिना रंग के भी नीलाभ हो
पास भी हो और अति दूर भी।
असंख्य ग्रहों, नक्षत्रों
और आकाशगंगाओं को
अपने अंक में समेटे हुए
तुम अनंत भी हो और शून्य भी
कितने रहस्यमयी हो तुम!
बाहर भी हो और अंदर भी
मन में भी पलते हो
स्वप्नों में भी ढ़लते हो।
चिर अखंडित होकर भी
मनुष्यों पर टूट कर गिरते हो।
कितना प्रगाढ़ आकर्षण है तुम्हारा!
पल पल अपनी ओर खींचते हो
साहस के पंख देकर पास बुलाते हो।
ओ, निराकार, पारदर्शी, अखण्डित नभ!
कोई न जान सका
तुम्हारी ऊँचाई, तुम्हारा विस्तार, तुम्हारी विराटता।
निराकार होकर भी दृश्य हो
बिना रंग के भी नीलाभ हो
पास भी हो और अति दूर भी।
असंख्य ग्रहों, नक्षत्रों
और आकाशगंगाओं को
अपने अंक में समेटे हुए
तुम अनंत भी हो और शून्य भी
कितने रहस्यमयी हो तुम!
बाहर भी हो और अंदर भी
मन में भी पलते हो
स्वप्नों में भी ढ़लते हो।
चिर अखंडित होकर भी
मनुष्यों पर टूट कर गिरते हो।
कितना प्रगाढ़ आकर्षण है तुम्हारा!
पल पल अपनी ओर खींचते हो
साहस के पंख देकर पास बुलाते हो।
ओ, निराकार, पारदर्शी, अखण्डित नभ!
कोई न जान सका
तुम्हारी ऊँचाई, तुम्हारा विस्तार, तुम्हारी विराटता।
***** प्रताप नारायण
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