मैं का मद ऐसा सर चढ़ता, इठलाते बल खाते हैं।
जाना तो उस पार सभी को, समझ नहीं क्यों पाते हैं।।
तेरा- मेरा तू-तू मैं-मैं, जग इसमें ही हारा है।
बीच भंवर में डगमग नैया, कोसों दूर किनारा है।।
माँझी की कोई कब सुनता, निज पतवार चलाते हैं।
जाना तो उस पार सभी को, समझ नहीं क्यों पाते हैं।।
जिसको देखो उलझा है वह, इस दुनिया के मेले में।
कोई रोता बीच सड़क पर, रोते कई अकेले में।।
ईश्वर का यह खेल समझ लो, नासमझे पछताते हैं।
जाना तो उस पार सभी को, समझ नहीं क्यों पाते हैं।।
कितना भी बलशाली कोई, जीवन आना-जाना है।
आशा और निराशा का यह, सारा ताना-बाना है।।
मानव रूप मनुज क्यों पाया, क्या खुद को समझाते हैं!
जाना तो उस पार सभी को, समझ नहीं क्यों पाते हैं।।
*** विश्वजीत शर्मा 'सागर'
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