बचपन में सुंदर लगता था, तब कहते यह जग सच्चा।
खेल-कूद में जग को झूठा, नहीं समझता था बच्चा।।
राग-द्वेष जब बढ़ा हृदय में, भरमायी तब काया है।
जग सच्चा या झूठा बोलो, समझ कौन यह पाया है।।
कहीं द्वार पर सुख के बदले, घड़ी दुखों की आ जाये।
लगे भयावह मिथ्या यह जग, दुख की बदली जब छाये।।
सच्चा-झूठा भेद समझ मन, यह तो प्रभु की माया है।
जग सच्चा या झूठा बोलो, समझ कौन यह पाया है।।
सच मानो तो मिथ्या जग ने, मानव मन को भरमाया।
झूठा तो चञ्चल मानव मन, गीता में ये समझाया।।
झूठ संगठित सच पर हावी, जग में रहता आया है।
जग सच्चा या झूठा बोलो, समझ कौन यह पाया है।।
*** लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला
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