खुली बेड़ियाँ गर्भ-नर्क की, स्वर्ग-धरा पर आया।
ख़ुश थे सभी मगर तू रोया, देख जगत की माया।।
भूल गया घर वापस जाना, कुछ दिन यहाँ ठिकाना।
जग-सराय में रैन बसेरा, प्रात यहाँ से जाना।।
यौवन का मदिरालय छलका, मृग तृष्णा ने घेरा।
भोग-रोग के संग तृषा ने, डाल दिया तन डेरा।।
मन-तुरंग नव भरे उड़ानें, सोच लिया जो पाना।
जग-सराय में रैन बसेरा, प्रात यहाँ से जाना।।
गई बहारें पतझड़ आया, फीके लगें नजारे।
काया-माया साथ न देती, झूठे सभी सहारे।।
हंस उड़ा तज मानसरोवर, रूठ गया जब दाना।
जग-सराय में रैन बसेरा, प्रात यहाँ से जाना।।
*** चंद्र पाल सिंह 'चंद्र'
No comments:
Post a Comment