भीड़ में मैं अकेला रहा उम्र भर।
मंजु-स्मृति रश्मियां मन पटल पर झरीं।
रैन तम मिट रहा शुचि प्रभा बो गई।
मंजुषा मंजु मन में दबी बात की।
प्रीति अल्हड़ सयानी मुखर रात की।
वो तुम्हीं थी दबे पाँव आ द्वार पर।
लाज चौखट कठिन से कठिन पार कर।
उर्मि अभिसारिका सी अमा धो गई।
अब स्वयं से मिला हूँ सभा हो गई।
लाज की बेड़ियां दूरियां थी घनीं।
कर्म की साधना धर्म चादर तनीं।
एक कर्तव्यनिष्ठा प्रखर भाव था।
बस निभाना स्वयं को सुभग चाव था।
तू सुहानी वसंती हवा हो गई।
अब स्वयं से मिला हूँ सभा हो गई।
आज सानिध्य तेरा मुखर मौन है।
अनछुई मृदु छुअन छाँव भी छौन है।
नेह की तुम प्रिये मंजु अनुवाद हो।
रागिनी सप्त स्वर में सुसंवाद हो।
सद्य शम्पा गिरी सी कहाँ खो गई।
अब स्वयं से मिला हूँ सभा हो गई।
*** सुधा अहलुवालिया
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