कुछ पहाड़
बर्फ का दुशाला पहन
छिपा ले जाते हैं
बहुत कुछ?
वो कटता जंगल
सूखती बरसाती नदी
उजड़ते गाँव।
शब्दों की चादर पहन
खिलखिलाती है त्रासदी
भूली पगडण्डी
पैरों नीचे धँस जाती है।
सेंध मारती सी कटु होती
प्यार की भाषा घर ढूँढती है
ताकता रहता है आसमान
उड़ते पखेरू नीड़ खोजते हैं।
सुन सको तो
गूँजते अंतर्नाद को सुनो
जंगल पहाड़ नदी चीर कर
पुकारता है।
यदि सवारना है तो
रचो वो ही धुन
जो बचा सके
प्रति पल होती इन विभीषिकाओं से।
*** मंजुल भटनागर
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