तथ्य क्या है?
....... क्या कहूँ ।
सत्य क्या है?
....... क्या कहूँ।
है दो आयामी सच मेरा,
क्या झूठ है? लालच मेरा?
कोई तपी त्यागी हूँ नहीं,
मैं वीतरागी हूँ नहीं।
अगर भक्ति मुझमें है,
तो फिर आसक्ति
मुझमें है।
यही उपलब्धि मेरी
कि शीलवान हूँ?
किस तृष्णा से मगर
अनजान हूँ?
क्षुद्रता मुझसे
है इतर कहाँ।
दुबके हुए सत्य
हैं मुखर कहाँ?
न तो विनीत सी
कहीं प्रथाएँ हैं।
प्रार्थनाओं में भी
बस कामनाएँ हैं।
जहाँ ज़िन्दगी ही
एक स्वांग हो।
कैसे झूठ का फिर
परित्याग हो।
ज्ञान भी अर्जित किया
तो चतुरता लिए।
स्पर्धा संग विद्वेष की
प्रचुरता लिए।
हैं तृष्णायें गीत गा रहीं,
वय आ रही
वय जा रही।
अब न वानप्रस्थ है
न संन्यास है।
अंतिम साँस तक
बस संत्रास है।
कौन सी उपलब्धियाँ,
किस सत्य को संचित करे।
इतिहास अपने पृष्ठों पर
क्या-क्या मेरा अंकित करे?
न आरम्भ में, न परिशिष्ट में,
न किसी कथा विशिष्ट में,
जाते हुए तन गल जायेगा,
कितने झूठों के अवशिष्ट में
( पढ़ा है कि स्वर्ग की ओर प्रस्थान करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर की, एक आंशिक असत्य के कारण, दाहिनी कनिष्ठा गल गयी थी।)
- ***मदन प्रकाश***
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