सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला
के साहित्यिक मंच पर
मज़मून 21 में चयनित
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ज़िंदगी की डगर, संग चलते हुए ,
हमने देखे हैं पत्थर पिघलते हुए।
धूप के सिलसिले छाँव के गाँव में
पाँव चलते रहे यूँ ही जलते हुए ।
पंथ दुर्गम हमें मुस्कुराते लगे
गुनगुनाते रहे हम सँभलते हुए ।
समर्पण को आतुर दिखी इक नदी
हमने देखे समंदर मचलते हुए ।
इस सफ़र का कभी अंत होता नहीं
रश्मियों ने कहा हमसे ढलते हुए ।
*** प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ***
बहुत गहरा अर्थ समेटे हुए है आपकी गीतिका ...नमन सर आपको
ReplyDeleteआ. Shanti Purohit जी, प्रतिक्रिया हेतु सादर आभार आपका. सादर नमन
Deleteबहुत बधाई हो आपको ,आपकी लेखनी में तो माँ सरस्वती का निवास है ,प्रणाम आपको
ReplyDeleteआ. Yashodhra जी, सादर आभार आपका. सादर नमन
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