सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला
के साहित्यिक मंच पर
मज़मून 19 में चयनित
आज का इंसान, बनता जा रहा है आदमी,
आदमीयत के तराने, गा रहा है आदमी।
हम हैं ज्ञानी, हम हैं ध्यानी, हमसे ही संसार है,
हम हुये हैं आधुनिक, समझा रहा है आदमी।
शास्त्र सम्मत, नारियों को, पूजना तो छोड़िये,
बन नराधम कोख को, दहला रहा है आदमी।
पोतियों की उम्र की, पत्नी उसे है चाहिये,
इश्क़, लटका क़ब्र में, फ़र्मा रहा है आदमी।
पूँछ खोयी, मूँछ खोयी, खो दिये संस्कार सब,
फिर भी अपने आपको, बहला रहा है आदमी।
बन्धु-बान्धव औ सगे-नाते, नदारद हो चुके,
बारहा शैतान को, शरमा रहा है आदमी।
क्या ज़रूरत बोझ ढोयें, मात-पित का खामखाँ,
इसलिये वृद्धाश्रम, बनवा रहा है आदमी।
जर, ज़मीं, जोरू ही अब हैं, आदमी की नेमतें,
नीचता की हर हदें, अजमा रहा है आदमी।
ये क़यामत की अलामत, तो नहीं ‘वर्मा’ कहीं?
कुछ न भाता, आदमी को, खा रहा है आदमी।
आदमीयत के तराने, गा रहा है आदमी।
हम हैं ज्ञानी, हम हैं ध्यानी, हमसे ही संसार है,
हम हुये हैं आधुनिक, समझा रहा है आदमी।
शास्त्र सम्मत, नारियों को, पूजना तो छोड़िये,
बन नराधम कोख को, दहला रहा है आदमी।
पोतियों की उम्र की, पत्नी उसे है चाहिये,
इश्क़, लटका क़ब्र में, फ़र्मा रहा है आदमी।
पूँछ खोयी, मूँछ खोयी, खो दिये संस्कार सब,
फिर भी अपने आपको, बहला रहा है आदमी।
बन्धु-बान्धव औ सगे-नाते, नदारद हो चुके,
बारहा शैतान को, शरमा रहा है आदमी।
क्या ज़रूरत बोझ ढोयें, मात-पित का खामखाँ,
इसलिये वृद्धाश्रम, बनवा रहा है आदमी।
जर, ज़मीं, जोरू ही अब हैं, आदमी की नेमतें,
नीचता की हर हदें, अजमा रहा है आदमी।
ये क़यामत की अलामत, तो नहीं ‘वर्मा’ कहीं?
कुछ न भाता, आदमी को, खा रहा है आदमी।
***छत्र पाल वर्मा***
No comments:
Post a Comment