Sunday, 28 April 2024

मैं गीत लिखती हूँ धरा के - एक गीत

 

हाँ सुनो मैं गीत लिखती हूँ धरा के।
हम सभी को जो दुलारे मुस्करा के।।

रुप की रानी चहकती सी लगे जो,
रजनीगंधा सी महकती ही रहे जो,
गुल‌मोहर टेसू की केसरिया दुशाला,
सतरंगी रंग में मचलती सी लगे जो,
चहचहाती भोर सी इस उर्वरा के।
हाँ सुनो मैं गीत लिखती हूँ धरा के।।

जिसके आँचल में टँके फसलों के मोती,
हर नयन में नित नये जो स्वप्नन बोती,
गोद में जिसके है गंगा की रवानी,
मुग्ध करती ओढ़ कर चूनर ये धानी
खिलखिलाकर झूमती विश्ववंभरा के।
हाँ सुनो मैं गीत लिखती हूँ धरा के।।

जिसके आँगन में चहकती हैं फ़िज़ायें,
जन्म लेती नित नयी संभावनायें,
जिसमें इठलाती हुयी नदियों की सरगम,
जलतरंगों का मधुर संगीत अनुपम,
गुनगुनाकर छेड़ती स्वर उस स्वरा।
हाँ सुनो मैं गीत लिखती हूँ धरा के।।

*** प्रतीक्षा तिवारी
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