निशा के श्यामल कपोलों पर
साँसों ने अपना आधिपत्य जमा लिया।
झींगुरों की लोरियों ने
अवसाद की अनुभूतियों को सुला दिया।
स्मृतियाँ किसी खिलौने की भाँति
बेबसी के पलों को बहलाने का
प्रयास करने लगीं।
आँखों की मुंडेरों पर
बेबसी की व्यथा तरल हो चली।
आँखों के बन्द करने से कब दिन ढला है।
मुकद्दर का लिखा कब टला है।
मृतक कब पुनर्जीवित हुआ है।
प्रतीक्षा की बेबसी के सभी उपचार
किसी रेत के महल से ढह गए।
थके नयन
विफलता के प्रहारों को सह न सके,
प्रतीक्षा की विफल रात्रि आँखों में कट गई।
बेबसी स्मृति शूलों पर करवटें बदलती रही।
दृगजल कपोल पृष्ठ पर
बेबस पलों की व्यथा लिख गए।
*** सुशील सरना
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