ले इश्क़ की फ़रियाद को थी फिर रही गुम सी नज़र
इक बार तुमपे जो टिकी तो फिर कहाँ बहकी नज़र
अपने लिबासों में सदा दिखती रही बेपर्दगी
फिर पैरहन सी रूह पर हमने तेरी पहनी नज़र
डर से बरी ही कर दिया मैंने उसे इलज़ाम से
जाने न क्या स्वीकार ले यूँ सामने झुकती नज़र
इस कोख के जाये कभी तो लौट घर-आँगन मिलें
रस्ता तके दहलीज पर खोयी हुई बूढ़ी नज़र
हर रात थोड़ी कालिमा सपनों के गालों पर रची
जाये न लग दुर्योग से उनको कहीं मेरी नज़र
वो चाँद दिखता फिर क्षितिज पर ख़ूब मुस्काता हुआ
उस चाँद में सूरत तेरी दिलदार को आती नज़र
***** मदन प्रकाश
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