रास्ट्रीय अस्मिता की रक्षा हेतु प्राण आहुति को,
सीमाओं पर कर अरि शमन त्राण आत्मचर्कृति को,
करते जो जय हिन्द वन्देमातरम का उद्घोष,
बलिदानी सैन्य शक्ति देती प्राण देश प्रस्तुति को।
अस्सी घाव खाकर भी राणा सांगा डटे रहे थे,
मातृभूमि की रक्षा को रणभूमि पर खड़े रहे थे,
बाप्पा रावल का शौर्य क्या हम कभी भूल पायेंगे
मेवाड़ी नारियों का जोहर कभी भूल पायेंगे।
याद है गुरु गोविन्द जी के दो सुतों का बलिदान,
याद है राणा प्रताप का देशप्रेम का अभिमान,
याद है वीर शिवाजी की मराठा वाली शान,
याद है आल्हा उदल के अद्भुत पराक्रम का गान।
कहाँ गया वीर रानी हाडा का वह मस्तक दान,
कहाँ गयी पन्ना धाय के वात्सल्य की पहचान,
कहाँ गयी झाँसी की रानी की उन्मुक्त दहाड़,
कहाँ गया रानी दुर्गावती का गजनवी पछाड़।
आजाद बिस्मिल भगत अश्फाक की वह क़ुरबानी,
सुभाष वीर सावरकर तिलक लालाजी की कहानी,
क्या क्या गिनवायें देश की धरती तो भरी पड़ी है,
वीरों के बलिदान से यह भूमि तो हरी भरी है।
इन सिंहों ने दे आहुति प्राणों की बचाई शुचिता,
लाये थे ये स्वतंत्रता स्वर्णिम भविष्य बनाने को,
कुछ गीदड़ों ने बेच डाली यह पावन स्वतंत्रता,
विकृत राजनीति और निज स्वार्थ सिद्धि पाने को।
तरंगित भावनायें स्वतः उत्कर्ष पर होती हैं,
देह शिराएँ शोणित प्रवाह से स्पंदित होती हैं,
चिंगारियाँ स्फुरित होती हैं उसे भस्म करने को,
सीमा पर जब जब बाधायें प्रतिपादित होती है।
====सुरेश चौधरी
मातृभूमि की रक्षा को रणभूमि पर खड़े रहे थे,
बाप्पा रावल का शौर्य क्या हम कभी भूल पायेंगे
मेवाड़ी नारियों का जोहर कभी भूल पायेंगे।
याद है गुरु गोविन्द जी के दो सुतों का बलिदान,
याद है राणा प्रताप का देशप्रेम का अभिमान,
याद है वीर शिवाजी की मराठा वाली शान,
याद है आल्हा उदल के अद्भुत पराक्रम का गान।
कहाँ गया वीर रानी हाडा का वह मस्तक दान,
कहाँ गयी पन्ना धाय के वात्सल्य की पहचान,
कहाँ गयी झाँसी की रानी की उन्मुक्त दहाड़,
कहाँ गया रानी दुर्गावती का गजनवी पछाड़।
आजाद बिस्मिल भगत अश्फाक की वह क़ुरबानी,
सुभाष वीर सावरकर तिलक लालाजी की कहानी,
क्या क्या गिनवायें देश की धरती तो भरी पड़ी है,
वीरों के बलिदान से यह भूमि तो हरी भरी है।
इन सिंहों ने दे आहुति प्राणों की बचाई शुचिता,
लाये थे ये स्वतंत्रता स्वर्णिम भविष्य बनाने को,
कुछ गीदड़ों ने बेच डाली यह पावन स्वतंत्रता,
विकृत राजनीति और निज स्वार्थ सिद्धि पाने को।
तरंगित भावनायें स्वतः उत्कर्ष पर होती हैं,
देह शिराएँ शोणित प्रवाह से स्पंदित होती हैं,
चिंगारियाँ स्फुरित होती हैं उसे भस्म करने को,
सीमा पर जब जब बाधायें प्रतिपादित होती है।
====सुरेश चौधरी
No comments:
Post a Comment