सुख-दुख का रेलम पेला है।
क्या जीवन एक झमेला है?
नित नूतन तृष्णा जाग रही।
मानस में जलती आग रही।।
कैसे इसे बुझाऍं बोलो।
अंतस के पट माधव खोलो।।
आशा - तृष्णा का मेला है।
क्या जीवन एक झमेला है?
लोभ-मोह के बादल छाए।
कैसे शांति हृदय में आए।।
स्वार्थ-सिंधु में डूबी काया।
भाता अपना नहीं पराया।।
यह प्रांगण लगे तबेला है।
क्या जीवन एक झमेला है?
माया के अंबार लगाया।
किंतु नहीं कुछ कर में आया।।
जीवन व्यर्थ गँवाया जग में।
चुभते शूल रहे हैं मग में।
जीवन की संध्या बेला है।
क्या जीवन एक झमेला है?
*** चंद्र पाल सिंह 'चंद्र'
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