झलक रही छवि देख थके हम,
ललक भरे नैनन की;
बाकी झलक अनोखेपन की।
दारुण दाह लिए,
बिछोह की आह लिए;
चित्त कुछ अधीर है,
अकथ कोई पीर है;
नेत्र में न नीर है,
शिथिल ज्यों शरीर है;
कथा-व्यथा है मानो;
एक वियोगी जन की।
बाकी झलक अनोखेपन की।
कह न सकी कुछ,
सुन न सकी कुछ,
रही मूक हलचल सी;
प्रकृति संग भी
निपट अकेली;
पावन गंगाजल सी।
है ज्वालामुखी,
या उसकी चिंगारी;
मित्र कहो, है पुरुष;
या कह लो नारी!
रही प्रतीक्षा उभय दिशा से;
आलिंगन के क्षण की।
बाकी झलक अनोखेपन की।
ललक भरे नैनन की;
बाकी झलक अनोखेपन की।
दारुण दाह लिए,
बिछोह की आह लिए;
चित्त कुछ अधीर है,
अकथ कोई पीर है;
नेत्र में न नीर है,
शिथिल ज्यों शरीर है;
कथा-व्यथा है मानो;
एक वियोगी जन की।
बाकी झलक अनोखेपन की।
कह न सकी कुछ,
सुन न सकी कुछ,
रही मूक हलचल सी;
प्रकृति संग भी
निपट अकेली;
पावन गंगाजल सी।
है ज्वालामुखी,
या उसकी चिंगारी;
मित्र कहो, है पुरुष;
या कह लो नारी!
रही प्रतीक्षा उभय दिशा से;
आलिंगन के क्षण की।
बाकी झलक अनोखेपन की।
*** हरिहर तिवारी ***
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