जब जीत-जीत पर हार मिले
तो हार-हार पर जीत खिले
ये जीवन है बस खेल, प्रिये।
मैं उठ-उठ कर हर बार गिरा
तब गिर-गिर कर भी ख़ूब फिरा
वह हार बनाता चाहों का
हर बार सहारा बाहों का
ये जीवन है बस बेल, प्रिये!
इक यहाँ चढ़ा, इक वहाँ चढ़ा
वह टकरा के हर बार बढ़ा
यह बैठ गया, वह उतर गया
हर एक मुसाफ़िर मितर नया
ये जीवन है बस रेल, प्रिये!
*** रमेश उपाध्याय
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