रक्तिम आभा ले उगता है, प्राची में दिनकर,
उषा किरण की डोली बैठी, धूप नवल चढ़कर।
आशाओं की डोरी थामे, भोर उतरती है,
सृष्टि रचयिता धरणी हँसती, फूलों पर थमकर।
दिनकर सौंपे विकल धरा को, सतरंगी चूनर,
दूर क्षितिज में सेज नगों की, लेता बाँहों भर।
पंछी कलरव करते मधुरिम, मंगल गान करें,
प्रखर दीप्त, आलोकित, अरुणिम, दृश्य बड़ा मनहर।
वीर बहूटी धरा प्रणय की, पाती पढ़ पढ़ कर,
दान बाँटती मंजुलता का, दसों दिशा खुलकर।
प्रकृति नटी का रूप सलोना, ईश्वर की लीला,
द्रुमदल, कंज, भ्रमर हँस कहते,''जीवन है सुंदर"।।
***** दीपशिखा सागर
दूर क्षितिज में सेज नगों की, लेता बाँहों भर।
पंछी कलरव करते मधुरिम, मंगल गान करें,
प्रखर दीप्त, आलोकित, अरुणिम, दृश्य बड़ा मनहर।
वीर बहूटी धरा प्रणय की, पाती पढ़ पढ़ कर,
दान बाँटती मंजुलता का, दसों दिशा खुलकर।
प्रकृति नटी का रूप सलोना, ईश्वर की लीला,
द्रुमदल, कंज, भ्रमर हँस कहते,''जीवन है सुंदर"।।
***** दीपशिखा सागर
बहुत सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteसादर आभार आपका आदरणीय.
Deleteसादर नमन