बचपन में देखता था,
एक लहराती बलखाती सापिन सी
पगडण्डी जाती हुई,
ऊपर दलमा की पहाड़ी पर
जाते थे उसके साथ
उन आदिवासियों के
जज्बात,
जिजीविषा की सौगात।
शैल शिखर पर
बसी वो जनजाति
आधुनिकता से दूर
अपनी पहचान की मोहताज
अपने अस्तित्व को सँवारती
कीड़ों-मकोड़ों को
खाने को मजबूर,
तोड़कर केंदु के पत्ते
कुसुम के फल चिरौंजी के दाने
गुजर बसर को
वही किस्से पुराने।
पर्वत बालायें कर्मठ, मेहनतकश
सर पर ढोती
मीलों लकड़ी के गट्ठर
शायद एक दिन की
रोटी मिल जाय।
***** सुरेश चौधरी
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