सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला
के साहित्यिक मंच पर
मज़मून 32 में चयनित
दो रचनाओं में चन्द दोहे और एक कविता
झूठ बोलते जोर से, ऊँची बड़ी
दुकान।
नहीं छुपेगा सत्य यूँ, फीके हैं पकवान।।1।।
नहीं छुपेगा सत्य यूँ, फीके हैं पकवान।।1।।
सीख दे रहे और को, ऊँची
बड़ी दुकान।
हज्ज बिलाई खुद बने, फीके हैं पकवान।।2।।
हज्ज बिलाई खुद बने, फीके हैं पकवान।।2।।
जनता के सेवक बने, ऊँची
बड़ी दुकान।
दो टकिया के लोग ये, फीके हैं पकवान।।3।।
दो टकिया के लोग ये, फीके हैं पकवान।।3।।
बन्दे सब गंदे भये, ऊँची
बड़ी दुकान।
मन मैले तन ऊजला, फीके हैं पकवान।।4।।
मन मैले तन ऊजला, फीके हैं पकवान।।4।।
काला कागा मन भया, ऊँची
बड़ी दुकान।
लगा दाग दीखे नहीं, फीके हैं पकवान।।5।।
लगा दाग दीखे नहीं, फीके हैं पकवान।।5।।
***जी पी पारीक***
ऊँची दुकान फीका पकवान है,
कच्चा निवास, पक्का मकान है।
दुर्योधन ने नहीं बताया,
जन्घो से कमजोर हूँ।
कीचक ने भी नहीं बताया,
मै राहजनी का चोर हूँ।
थे निर्बल किन्तु लगे बलवान है,
ऊँची दुकान फीका पकवान है।
कैसे कहूँ पाप की जड़ मजबूत है,
पांडु और पांडव पापी जन्म प्रसूत है।
और गिनाये किसको दानी महा कर्ण भी,
वेदव्यास भी द्रोंण पात्र कुल वर्ण भी।
थे तर्क नहीं, पौराणिक मान है;
ऊँची दुकान फीका पकवान है।
लिख-लिख मै तंग हो रहा,
शेर गधे के संग हो रहा;
बदरंग सामाजिक रंग हो रहा,
दुष्कर्मी ही कथा-प्रसंग हो रहा,
सफ़ेद पोश ही काला परधान है;
ऊँची दुकान फीका पकवान है।
कैसी दृष्टि हुयी युग आवर्तन,
कैसी सृष्टि हुयी जग परिवर्तन!
दर्शक में क्या भेद दृष्टि का,
निगमागम है सार सृष्टि का!
रीति-नीति, शुचि-प्रीति तो हैरान है;
दिलहीन विकास सह विज्ञान है।
ऊँची दुकान फीका पकवान है।।
कच्चा निवास, पक्का मकान है।
दुर्योधन ने नहीं बताया,
जन्घो से कमजोर हूँ।
कीचक ने भी नहीं बताया,
मै राहजनी का चोर हूँ।
थे निर्बल किन्तु लगे बलवान है,
ऊँची दुकान फीका पकवान है।
कैसे कहूँ पाप की जड़ मजबूत है,
पांडु और पांडव पापी जन्म प्रसूत है।
और गिनाये किसको दानी महा कर्ण भी,
वेदव्यास भी द्रोंण पात्र कुल वर्ण भी।
थे तर्क नहीं, पौराणिक मान है;
ऊँची दुकान फीका पकवान है।
लिख-लिख मै तंग हो रहा,
शेर गधे के संग हो रहा;
बदरंग सामाजिक रंग हो रहा,
दुष्कर्मी ही कथा-प्रसंग हो रहा,
सफ़ेद पोश ही काला परधान है;
ऊँची दुकान फीका पकवान है।
कैसी दृष्टि हुयी युग आवर्तन,
कैसी सृष्टि हुयी जग परिवर्तन!
दर्शक में क्या भेद दृष्टि का,
निगमागम है सार सृष्टि का!
रीति-नीति, शुचि-प्रीति तो हैरान है;
दिलहीन विकास सह विज्ञान है।
ऊँची दुकान फीका पकवान है।।
***हरिहर तिवारी***
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