Sunday 29 November 2015
Sunday 22 November 2015
एक गीत
अरुण उषा में उगता सूरज, स्वर्णिम किरणें लाया है
सोच रही दृग बंद किये मैं, मन में कौन समाया है
तन उन्मादित मन उल्लासित, पौर-पौर इतराया यूँ
स्वप्न हुए सब वासन्ती, मन मेरा इठलाया यूँ
शुष्क हृदय को आर्द्र बनाता, बरखा सम मन भाया है
अरुण उषा में उगता सूरज, स्वर्णिम किरणें लाया है
प्राची की आभा में देखो, पंछी बन कर चहक रहा
दिशा-दिशा को सुरभित करता, चन्दन वन सा महक रहा
अन्तर्मन के उपवन को वो, प्रमुदित करने आया है
अरुण उषा में उगता सूरज, स्वर्णिम किरणें लाया है
***** दीपिका द्विवेदी 'दीप'
दिशा-दिशा को सुरभित करता, चन्दन वन सा महक रहा
अन्तर्मन के उपवन को वो, प्रमुदित करने आया है
अरुण उषा में उगता सूरज, स्वर्णिम किरणें लाया है
***** दीपिका द्विवेदी 'दीप'
Sunday 15 November 2015
चंद दोहे
लीला लीलाधर करी, उठा पेट में दर्द।
हारे वैद्य हकीम सब, दर्द बडा बेदर्द।।
नारद पूछें कृष्ण से, आपहि कहो निदान।
भक्त चरण रज जो मिले, होय तबहि कल्यान।।
नारद घूमें सकल जग, काहू न दीन्ही धूरि।
नरक गमन मन सालता, भागि चले सो दूरि।।
गोपी इक ऐसी मिली, सुनि नारद के बैन।
पैर मले बृजभूमि में, आभा पूरित नैन।।
नारद गोपी से कहें, नरक मिलेगो तोहि।
डरी नहीं हतभागिनी, समझाओ तो मोहि।।
श्याम दर्द जो ठीक हो, नरक सरग सब व्यर्थ।
ज्ञानी ध्यानी आप हो, समझो प्रेमिल अर्थ।।
प्रिय हित ओढ़े सकल दुख, प्रेमी की पहचान।
नाची जंगल मोरिनी, नारद जग अनजान।।
गोप कुमार मिश्र
Saturday 7 November 2015
दीप जलाऊँ
हर दिशा में तम गहराया,
इतने दीप कहाँ से लाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ।
एक भावना के आँगन में,
एक साधना के आसन पर,
एक उपासना के मंदिर में,
एक सत्य के सिंहासन पर,
बनूँ मैं माटी किसी दीप की,
और कभी बाती बन जाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ,।
एक दिल के तहखाने में भी,
स्वप्निल तारों की छत पर भी,
एक प्यार की पगडण्डी पर,
खुले विचारों के मत पर भी,
जलूँ रात भर बिना बुझे मैं,
तेल बनूँ तिल तिल जल जाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ।
एक दोस्ती की बैठक में,
एक ईमान की राहों पर भी,
एक मन की खिड़की के ऊपर,
एक हंसी के चौराहों पर भी,
दीप की लौ है सहमी-सहमी,
तुफानों से इसे बचाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ।
बचपन के गलियों में भी एक,
और यादों के पिछवाड़े में भी,
अनुभव की तिजोरी पर एक,
और उम्र के बाडे में भी,
बाती की अपनी सीमा है,
कैसे इसकी उम्र बढ़ाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ।
हार है निश्चित अंधेरों की,
जग में एेसी आस जगाऊँ,
सुबह का सूरज जब तक आये,
मैं प्रकाश प्रहरी बन जाँऊ,
हर दिशा में तम गहराया,
इतने दीप कहाँ से लाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ।
-: संजीव जैन:-
एक साधना के आसन पर,
एक उपासना के मंदिर में,
एक सत्य के सिंहासन पर,
बनूँ मैं माटी किसी दीप की,
और कभी बाती बन जाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ,।
एक दिल के तहखाने में भी,
स्वप्निल तारों की छत पर भी,
एक प्यार की पगडण्डी पर,
खुले विचारों के मत पर भी,
जलूँ रात भर बिना बुझे मैं,
तेल बनूँ तिल तिल जल जाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ।
एक दोस्ती की बैठक में,
एक ईमान की राहों पर भी,
एक मन की खिड़की के ऊपर,
एक हंसी के चौराहों पर भी,
दीप की लौ है सहमी-सहमी,
तुफानों से इसे बचाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ।
बचपन के गलियों में भी एक,
और यादों के पिछवाड़े में भी,
अनुभव की तिजोरी पर एक,
और उम्र के बाडे में भी,
बाती की अपनी सीमा है,
कैसे इसकी उम्र बढ़ाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ।
हार है निश्चित अंधेरों की,
जग में एेसी आस जगाऊँ,
सुबह का सूरज जब तक आये,
मैं प्रकाश प्रहरी बन जाँऊ,
हर दिशा में तम गहराया,
इतने दीप कहाँ से लाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ।
-: संजीव जैन:-
Sunday 1 November 2015
प्रतीक्षारत
ऋतु शीत है, धरा तुहिन पोषित है, संगीत है,
मकरंद सरोरुह अर्जित है, भ्रमर गुंजित है,
मंजरी झूमे है, सुन वादन मन मदन ग्रसित है,
शाख शाख पलास पल्लवित है, बदन स्पंदित है।
पास आयेंगे कंत है, गलबहियाँ अनंत है,
अरुणोदित क्षितिज दिगंत है, आया हेमंत है,
रूपसी लिए रूप चहुंदिक पिय प्रतीक्ष्यन्त है,
कलत्व-मुदित राग इस ओर से उस पर्यन्त है।
***सुरेश चौधरी
अरुणोदित क्षितिज दिगंत है, आया हेमंत है,
रूपसी लिए रूप चहुंदिक पिय प्रतीक्ष्यन्त है,
कलत्व-मुदित राग इस ओर से उस पर्यन्त है।
***सुरेश चौधरी
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