Sunday 25 January 2015

दुनिया के रंग - एक कविता



भव सिन्धु के दो किनारे, इस पार अरु उस पार है,
सतत जीवन धारा बहे, इस पार फिर उस पार है
 
एक और सुख सुमन खिलते, चरण सिद्धी चूमती,
एक और दुःख से बिलखते, विपत्ति काली घूरती
 
यश कही सम्मान मिलता, द्रव्य-मुद्रा, हार है,
दोष-अपयश मिलता कहीं, कष्ट-दुसह प्रहार है
 
स्वप्निल प्यार पलता कहीं, यौवन प्रिये मधुमास है,
उर निराशा से दहकता जर जगत अरि त्रास है
 
गाना कहीं, रोना कहीं, खोना-पाना जग यही,
अपने-पराये होते यहीं,  मरना-जीना भी यहीं
 
कुछ पावन गंगा जल नहाते, कुछ शुष्क प्यासे होठ हैं,
कुछ पले नालिओ में, जनु विधना करे जग शोध है
 
गूँजती शहनाई धुन यहाँ, गाते सुरीले राग है,
उधर लाश निकली द्वार से, रुदन मचा कुहराम है
 
विषम प्रकृति का खेल जग, सुख-दुःख भय रेत है,
वैभव माया दीनता, छल विपदा का भयंकर प्रेत है
 
काल की गति विषम देखो, होता उदय रवि अस्त है,
कोई मदारी छुप नचाता नचता जगत अभ्यस्त है
 
अविरल जिन्दगी अभिनय चले, रंग-मंच जग भाव है,
निर्माता-निर्देशक है कोई, पात्र हम विधि भव प्रभाव है

*** हरिहर तिवारी

Sunday 18 January 2015

ते ते पाँव पसारिये जेती लम्बी सौर

'सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला' 
मज़मून 37 में चयनित सर्वश्रेष्ठ रचना



तृष्णा एक भँवर है गहरा नहीं है कोई छोर
उतने पाँव पसारिये बस जितनी लम्बी सौर

निर्धन है तो शरमाना क्या, 
 निर्बल है तो घबराना क्या, 
 जीवन के मौसम बदलेंगे, 
 सच कहने में हकलाना क्या, 
धन-दौलत से हंस न बनते ना ही होते मोर। 
 उतने पाँव पसारिये बस जितनी लम्बी सौर

सूरज गर्मी से जलता है, 
 चन्दा को ग्रहण हरता है, 
 पूर्ण नहीं कोई दुनिया में,
 तारा भी टूट के झरता है,
अपनी कमियों का कुदरत कब करती है शोर
 उतने पाँव पसारिये बस जितनी लम्बी सौर

सपनो में हर्ज नहीं होता,
 पर जीवन कर्ज नहीं होता,
 भ्रम की दुनिया में जीना भी,
 मानव का फर्ज नहीं होता,
जीवन अंधेरी रातें है और कभी है भोर
 उतने पाँव पसारिये बस जितनी लम्बी सौर

दुनिया में क्या लेकर आया,
 जो कुछ पाया यहीं पर पाया,
 फल जो खाता रोज मजे से,
 तूने क्या कोई पेड़ लगाया,
सब-कुछ मिला तुझे कुदरत से होता भाव विभोर
 उतने पाँव पसारिये बस जितनी लम्बी सौर

***संजीव जैन***
 

प्रस्फुटन शेष अभी - एक गीत

  शून्य वृन्त पर मुकुल प्रस्फुटन शेष अभी। किसलय सद्योजात पल्लवन शेष अभी। ओढ़ ओढ़नी हीरक कणिका जड़ी हुई। बीच-बीच मुक्ताफल मणिका पड़ी हुई...